लताजी का महाप्रयाण कोकिल कंठ का महाप्रयाण कैसे कहें ? बस भौतिक देह स्वर देह में शाश्वत रूप से परिणत हो गई है।वसंत में कोयल उड़ी लेकिन उन स्वरों को सौंपकर जिनसे हम अपने जीवन की लय रचते आए।उनके स्वरों के बिना हम अपने जीवन राग को कैसे सुनें?उनके स्वर हमारे जीने का अनुभव हैं और हम कभी इस अनुभव से अलग कैसे हो सकते हैं? कभी होंगे भी नहीं।देह के चले जाने भर से न तो उनके स्वर विलुप्त होंगे और न ही उन स्वरों की गंध के निर्झर थमेंगे।हमारी आस्था उनका सदैव अभिषेक कर उनकी अर्चना,आराधना करतीं रहेगी।
मुझे इस अवसर पर स्वर्गीय नर्मदा प्रसाद खरे की इन पंक्तियों का स्मरण हो रहा है जो देवता के मौन को कुछ इस तरह शब्द अर्घ्य अर्पित करती हैं,
भग्न मंदिर का भले ही देवता बोले न बोले
शंख तो बजते रहेंगे अर्चना होती रहेगी।
मुकुट टूटा,मूर्ति टूटी भावना फिर भी न टूटी
गांव छूटा गली छूटी ,स्नेह की थाती न छूटी
फूल झर भू चूम लेता ,सुरभि सांसें बिखर जातीं
काल सब कुछ लूटता है ,पर कभी क्या गंध लूटी?
प्राण पिक अब तो भले ही कंठ निज खोले न खोले
गीत के दीपक जलेंगे प्रार्थना होती रहेगी
शंख तो बजते रहेंगे ,अर्चना होती रहेगी।