संस्था अध्यक्ष डॉ. प्रतिमा जोशी सचिव- पर्यावरण संरक्षण समिति डॉ. विमल कुमार गर्ग एवं समस्त सदस्यगण वरिष्ठ चिकित्सक, मधुमेह एवं हृदय रोग विशेषज्ञ पूर्व एल्डरमेन नगर पालिक निगम उज्जैन अध्यक्ष प्रकाश चित्तौड़ा जी नेउज्जैन पर्यावरण संरक्षण समिति के द्वारा मालवा की जीवन रेखा मां क्षिप्रा के विषय को लेकर आयोजको ने पत्रकारों से चर्चा मे बताया

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मां क्षिप्रा का आध्यात्मिक, धार्मिक, भौगोलिक एवं सामाजिक महत्व पुरातन काल से भारतभूमि के प्रमुख तीर्थ क्षेत्रों में अवन्ती क्षेत्र, शिप्रा और महाकालेश्वर की महिमा क गान स्थान-स्थान पर हुआ है। अपनी पुरातनता, पवित्रता एवं मोक्षदायी स्वभाव के कारण भारत की प्रमुख नदी- मातृकाओं में प्रसिद्ध ‘शिप्रा’ युगों-युगों से लोक आस्था का केंद्र बनी हुई है। शिप्रा का उद्गम मध्यप्रदेश के महू नगर से लगभग 11 मील दूर स्थित कांकर बर्डी पहाड़ी से हुआ है। यह मालवा में लगभग 120 मील की यात्रा करती हुई चम्बल (चर्मण्यवती) में मिल जाती है। महाकवि कालिदास ने शिप्रा, चर्मण्यवती और गंभीर का सरस वर्णन ‘मेघदूत’ में किया है। शिप्रा अपने उद्गम से संगम तक खान, गंभीर, ऐन, गांगी और लूनी को समाहित करती हुई चम्बल में अंतर्लीन हो जाती है। शिप्रा की कई सहायक नदियों का उल्लेख प्राचीन साहित्य में मिलता है, यथा गंधवती, नीलगंगा, ख्याता, फाल्गु, सरस्वती, खगर्ता, कौशिकी, सोमवती या चंद्रभागा आदि, जिनमें से अधिकांश या तो लुप्तप्राय हैं या संकटग्रस्त । शिप्रा और चम्बल का संगम स्थल शिपावरा या सिपावरा के नाम से सुप्रसिद्ध है, जो सीतामऊ (जिला-मन्दसौर) और आलोट (जिला-रतलाम) के मध्य में है। वहाँ पहुँचकर शिप्रा अपने प्रवाह की विपुलता से चम्बल में संगमित होने की तत्परता और उछाह को प्रकट करती है। रतलाम जिले की आलोट तहसील के अर्न्तगत शिपावरा ग्राम ( स्थिति- 23.908 उत्तरी अक्षांश, 75.483 पूर्वी देशांतर) से करीब आधा किमी दूर शिप्रा एवं चम्बल नदी का संगम है। यह स्थान सिपावरा के नाम से भी जाना जाता है! पहले यह गाँव संगम के समीप स्थित था, जिसके साक्ष्य विपुल पुरासामग्री से युक्त विशाल टीले से मिलते हैं। शिपावरा में प्रागैतिहासिक काल से लेकर परमार और मराठा काल तक की पुरा-सम्पदा के महत्त्वपूर्ण प्रमाण उपलब्ध हैं, जो इस सुरम्य प्राकृतिक धार्मिक स्थान की युग-युगांतर में व्याप्त महिमाशाली स्थिति को प्रतिबिम्बित करते हैं। शिप्रा का पावन तट अनेक सहस्राब्दियों से मानवीय सभ्यता का क्रीड़ा स्थल रहा है। यजुर्वेद में शिप्रे अवेः पयः’ के द्वारा शिप्रा का स्मरण हुआ है। निरुक्त में ‘शिप्रा कस्मात्’ इस प्रश्न को उपस्थित करके उत्तर दिया गया है ‘शिवेन पातितं यद् रक्तं तत्प्रभवति, तस्मात्।’ अर्थात् शिप्रा क्यों कही जाती है? इसका उत्तर था शिवजी द्वारा जो रक्त गिराया गया, वही यहाँ अपना प्रभाव दिखला रहा है, नदी के रूप में बह रहा है, अतः यह शिघ्रा है। प्राचीन ग्रन्थों में शिघ्रा और सिप्रा दोनों नाम प्रयुक्त हुए हैं। इनकी व्युत्पत्तियाँ क्रमशः इस प्रकार हैं “शिवं प्रापयतीति शिप्रा’ और ‘सिद्धि प्राति पूरयतीति सिप्रा ।’ और कोशकारों ने सिप्रा का एक अर्थ करधनी भी किया है। तदनुसार यह नदी उज्जयिनी के तीन ओर से बहने के कारण करधनीरूप मानकर भी सिप्रा नाम से मण्डित हुई। उन दोनों नामों को साथ इसे क्षिप्रा भी कहा जाता है। यह उसके जल प्रवाह की द्रुतगति से सम्बद्ध प्रतीत होता है। अवन्ती क्षेत्र के विश्व-कोश के रूप में विख्यात स्कन्दपुराण में शिप्रा नदी का बड़ा माहात्म्य बतलाया है। यथा नास्ति वत्स ! महीपृष्ठे शिप्रायाः सदृशी नदी । यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्तिः कच्चिदासेवितेन वै।।
अर्थात् है वत्स | इस भू-मण्डल पर शिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है। क्योंकि जिसके तीर पर कुछ समय रहने से तथा स्मरण, स्नान-दानादि करने से ही मुक्ति प्राप्त हो जाती हैं। शिप्रा के कई नाम हैं, जैसे ज्वरघ्नी, अमृतोद्भवा, कल्पनाशिनी, कामधेनु-समुद्भवा, त्रैलोक्यपावनी, विष्णुदेहोद्भवा • आदि। इन संज्ञाओं से जुड़ी शिघ्रा की उत्पत्ति के संबंध में कई कथाएँ वर्णित है। जैसे यह विष्णुदेहोद्भवा है, एक कथा में कहा गया है कि विष्णु की अंगुली को शिव के द्वारा काटने पर उनका रक्त गिरकर बहने से यह नदी के रूप प्रवाहित हुई। इसीलिये ‘विष्णुदेहात् समुत्पन्ने शिप्रे । त्वं पापनाशिनी’ के माध्यम से शिप्रा की स्तुति की गई है। शिप्रा को गंगा भी कहा गया है। पंचगंगाओं में एक गंगा शिघ्रा भी मान्य हुई है। अवन्तिका को विष्णु का पदकमल कहा है और गंगा विष्णुपदी है, इसलिये भी शिप्रा को गंगा कहना नितान्त उपयुक्त है। कालिकापुराण में वर्णित शिप्रा की उत्पत्ति कथा के अनुसार, मेधातिथि द्वारा अपनी कन्या अरुन्धती के विवाह संस्कार के समय महर्षि वसिष्ठ को कन्यादान का संकल्प अर्पण करने के लिये शिप्रासर का जल लिया गया था, उसी के गिरने से शिप्रा नदी बह निकली बतलाई है। शिप्रा का अतिपुण्यमय क्षेत्र भी पुराणों में दिखाया है : शिव सर्वत्र पुण्योस्ते ब्रहमहत्यापहारिणी । अवन्तयां सविशेषेण शिप्रा हयुत्तरवाहिनी ।। तथा संगम नीलगंगाया यावद् गन्धवती नदी । तयोर्मध्ये तु सा शिप्रा देवानामपि दुर्लभा । । शिप्रा नदी वैसे तो सर्वत्र पुण्यमयी है, ब्रहम-हत्या के पाप का निवारण करनेवाली है, किन्तु उज्जयिनी में उत्तरवाहिनी होने पर और भी विशिष्ट हो जाती है। नीलगंगा के संगम से गन्धवती के बीच जो क्षिप्रा बहती है वह देवों के लिए भी दुर्लभ है। इसलिए क्षिप्रा के नाम स्मरण का महत्व भी प्रतिपादित है। शिप्रा शिप्रेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि । मुच्यते सर्वपापेभ्य शिवलोकं स गच्छति ।। अर्थात सौ योजन (चार सौ कोस दूर से भी यदि कोई शिघ्रा शिप्रा ऐसा स्मरण करता है तो वह सब पापों से छूट जाता है और शिवलोक को प्राप्त करता है। प्राचीन काल से ही नदी तट प्राणिजगत के नैसर्गिक वासस्थान रहे हैं। भारतीय शास्त्रों में आध्यात्मिक साधना के लिए नदी तटों का आश्रय उत्तम माना जाता है। ऋषि-मुनि, साधकगण सांसारिक बंधनों से मुक्त रहते हुए ऐसी पवित्र नदियों के तटों पर अपने आश्रमादि बनाकर उपासना करते थे। स्कन्दपुराण के अवन्तीखण्ड में शिप्रा के वर्णन के अतिरिक्त इसके तटों पर बने हुए तीर्थस्थलों (घाटों) की भी महिमा बतलाई है। पिशाचमुक्तेश्वर तीर्थ के समीप शिप्रा मन्दिर अतिप्राचीन काल से रहा है। रामघाट, नृसिंहघाट आदि अपनी महिमा बनाए हुए हैं तथा वहाँ स्थित विभिन्न देवालय भी अपनी महत्ता रखते हैं। शिप्रा के दूसरी ओर बने घाट और दत्त अखाड़े का भी विशिष्ट महत्व है। उज्जयिनी शिप्रा के उत्तरवाहिनी होने पर पूर्वीतट पर बसी है। ओखलेश्वर से मंगलनाथ तक यह पूर्ववाहिनी हैं। सिद्धवट और त्रिवेणी में स्नान दानादि करने की विशेष महिमा मानी गई है। शिप्रा नदी में नृसिंह घाट के पास कर्कराजेश्वर मंदिर है। ऐसी
मान्यता है कि वहीं पर कर्क रेखा, भूमध्य रेखा को काटती है। स्पष्ट है कि कालगणना की दृष्टि से भी शिप्रातट की महिमाशाली स्थिति रही है। शिप्रा और चंबल के पावन संगम पर स्थित ‘शिपावरा’ अत्यंत रमणीय स्थल है। दिल्ली-मुंबई रेल लाइन पर स्थित विक्रमगढ़-आलोट स्टेशन से यह लगभग 25 किमी दूर स्थित है। आलोट से कराड़िया, बरखेड़ा कला और मोरिया होकर शिपावरा पहुँचा जा सकता है। एक रास्ता आलोट से विक्रमगढ़, खजूरी देवड़ा, रजला और मोरिया होकर शिपावरा जाता है। शिपावरा पाँच हजार वर्ष पुरातन सभ्यता के अवशेषों को समेटे हुए हैं। 1992 ईस्वी में सुधी पुराविद् डॉ. श्यामसुंदर निगम के मार्गदर्शन में मेरे द्वारा शिपावरा क्षेत्र को लेकर किए गए समन्वेषण में विपुल पुरासामग्री का अनुशीलन किया गया था। इस कार्य में शिक्षाविद श्री कैलाशचंद्र दुबे, कलामनीषी श्री रमेश सोनगरा और विवेक नागर सहभागी बने थे। 1990-97 के दौर में डॉ शैलेंद्रकुमार शर्मा सोंधवाड़ क्षेत्र की कई प्रागैतिहासिक बस्तियों के समन्वेषण की राह खुली थी, जिनमें कलस्या, धरोला, गुलबालोद, कराड़िया, शिपावरा आदि प्रमुख हैं। उस दौरान शिपावरा संगम के समीपस्थ टीले से मानवीय सभ्यता के अनेक स्तरों के पुरा साक्ष्य मिले थे।

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